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Monday, May 6, 2019

बड़े शहरों में मुश्किल में भाजपा, कांग्रेस तलाश रही अभेद किलों में सेंधमारी का मौका

भोपाल : शहरों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा इस लोकसभा चुनाव में बड़े शहरों में ही कड़े संघर्ष में फंस गई है। पांच महीने पहले घूमे सियासी पहिए ने बड़ा राजनीतिक बदलाव कर दिया है। प्रदेश के चार महानगर भोपाल,इंदौर,जबलपुर और ग्वालियर में भाजपा अब तक के सबसे चुनौतीपूर्ण मुकाबले में नजर आ रही है।

भोपाल,इंदौर में तीस साल से कभी भाजपा के इन गढ़ों की नींव हिलते हुए नजर नहीं आई। २२ साल से जबलपुर और १२ साल से ग्वालियर कांग्रेस की पहुंच से बाहर बना हुआ है। प्रदेश में बदली सियासत ने कांग्रेस को इस मुकाम पर ला दिया है कि अब वो इन शहरों में भाजपा के बराबर के मुकाबले में नजर आ रही है।

इन चारों सीटों के परिणाम का अनुमान लगाने में राजनीतिक पंडित भी हिचक रहे हैं। भाजपा को अपने गढ़ बचाने की चुनौती है तो कांग्रेस के पास इन किलों में सेंधमारी का बड़ा मौका हाथ लगा है। कांग्रेस इस बार अभी नहीं तो कभी नहीं की तर्ज पर काम कर रही है। इन चार सीटों में से जबलपुर में मतदाताओं ने अपना फैसला ईवीएम में बंद कर दिया है बाकी की तीन सीटों पर अभी मतदान बाकी है।

प्रदेश की राजधानी भोपाल लोकसभा सीट इन दिनों देश में चर्चा का केंद्र बनी हुई है। पिछले तीस सालों में इस सीट का मिजाज नहीं बदला लेकिन इस बार चुनाव में इस शहर की फिजां में अलग ही रंग भर गया है। भोपाल के चुनाव को धर्म युद्ध की संज्ञा दे दी गई है।

भाजपा की प्रज्ञा सिंह और कांग्रेस के दिग्विजय सिंह में कड़ा मुकाबला है। कांग्रेस ने बड़ा दांव खेलते हुए अपने सबसे बड़े नेता पूर्व मुख्यमंत्री को उम्मीदवार बना दिया। कांग्रेस की चला सफल रही और भाजपा उम्मीदवारी में उलझ गई।

दिग्विजय सिंह के उम्मीदवार घोषित होने के बाद पहली बार भाजपा को यहां का प्रत्याशी तय करने में लंबा वक्त लग गया। भाजपा तीस सालों में पहली बार इतने कड़े संघर्ष से गुजर रही है। केएन प्रधान के बाद १९८९ से ये सीट भाजपा के अभेद गढ़ में शुमार हो गई है।

इंदौर : प्रदेश औद्योगिक राजधानी इंदौर की तासीर भी कुछ इसी तरह की है। लगातार आठ बार सांसद रहीं सुमित्रा महाजन ने यहां कभी कांग्रेस की दाल नहीं गलने दी। अब चुनाव में ताई नहीं हैं तो ये सीट भी भाजपा के लिए चुनौतीपूर्ण हो गई है। ताई के रहते भाजपा ने इस तरफ न उम्मीदवार की चिंता की और न ही यहां के परिणाम की लेकिन इस बार पेंच उम्मीदवार पर भी फंसा और मुकाबला भी चुनौतीपूर्ण हो गया।

कांग्रेस ने पंकज संघवी को उम्मीदवार बनाया। संघवी एक बार ताई से पचास हजार वोट से हार चुके हैं लेकिन उन्होंने मुकाबले में बने रहने की हिम्मत जुटाई थी। भाजपा यहां भी बमुश्किल उम्मीदवार तलाश पाई। भाजपा ने शंकर लालवानी को टिकट दिया है। अपना गढ़ बचाने के लिए शिवराज सिंह चौहान पूरा जोर लगाए हुए हैं।

जबलपुर : प्रदेश का तीसरा बड़ा शहर संस्कारधानी कहलाता है। २२ साल हो गए कांग्रेस को यहां पर एक जीत के लिए। इस बार यहां का मुकाबला भी कांग्रेस ने ऐसा कर दिया कि तीन बार के सांसद और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह को ऐड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ गया। कांग्रेस ने अपने सबसे मजबूत नेता राज्यसभा सदस्य विवेक तन्खा को फिर मैदान में उतार दिया।

पिछली बार तन्खा राकेश सिंह से चुनाव जरुर हारे थे लेकिन इस बार उन्होंने जबलपुर के विकास का मुद्दा छेड़कर राकेश सिंह को मुश्किल में डाल दिया है। अब यहां के परिणाम जानने के लिए लोगों में उत्सुकता है। यहां के लोग अपना फैसला ईवीएम में बंद कर चुके हैं।

ग्वालियर : इस शहर से समझा जा सकता है कि राजनीति का मिजाज भी कितना अलग होता है। सिंधिया घराने की रियासत में भाजपा का कब्जा है। यहां कांग्रेस १२ साल से जीत को तरस रही है। इस बार यहां के हालात भी बदले हुए नजर आते हैं।

मौजूदा सांसद केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ग्वालियर छोड़कर मुरैना चले गए। अब भाजपा ने महापौर विवेक शेजवलकर को उम्मीदवार बनाया है। कांग्रेस ने एक बार फिर अशोक सिंह को मैदान में उतारा है। इस बार ये मुकाबला बेहद संघर्षपूर्ण है। ग्वालियर-चंबल अंचल के भाजपा के सभी बड़े नेता अपने गढ़ को बचाने में जुटे हुए हैं।

 

 



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